बुरवा देव– जंगल की शपथ
🌑 डर, बलिदान और एक भूखी आत्मा की रक्तरंजित कथा...
मध्य भारत के घने जंगलों के बीच बसा एक गोंड गांव — बिसाहीपुर — जहां हर साल एक अनदेखा भय लोगों को मजबूर करता है कि वे "बुरवा देव" नामक क्रूर आत्मा को शांत करने के लिए काले बकरे की बलि दें। मगर क्या होता है जब एक वर्ष बलिदान रोक दिया जाता है? क्या अंधविश्वास सच बन जाता है? या गांव की आत्माएँ खुद अपनी कब्रें खोदने लगती हैं?
यह कहानी है उस शापित आत्मा की, जिसे कभी उसके ही गांववालों ने जिंदा जला दिया था… और जिसने मौत से पहले पूरे गांव को श्राप दिया —
"अगर मुझे भूखा रखा, तो तुम्हारे बच्चों के दिल मेरे जंगल में भटकेंगे..."
🩸 भाग 1 में जहां सबकुछ एक डरावने सपने से शुरू होता है, वहां धीरे-धीरे पूरा गांव असली दुःस्वप्न में बदल जाता है। पेड़ खून बहाने लगते हैं, दीवारों से धुआँ निकलता है, और हर रात एक नई लाश मिलती है...
😨 भाग 2 में कहानी चार गुना भयानक रूप ले लेती है — जहां बलिदान अब बकरे से आगे बढ़कर मानव तक पहुँच चुका है। और जब गांव के ही एक अजनबी का असली चेहरा सामने आता है — "बुरवा देव का पुनर्जन्म", तब शुरू होता है शाप का अंत या शायद एक और शुरुआत...
🔥 यह सिर्फ एक लोककथा नहीं, बल्कि एक ऐसा रक्तरंजित रहस्य है जो हर वर्ष अमावस्या की रात दोहराया जाता है।
कभी जंगल की गहराइयों में घंटियों की आवाज़ सुने हो? हो सकता है बुरवा देव तुम्हें पुकार रहा हो…
📚 यह कहानी गोंड जनजाति की लोकपरंपराओं, अंधविश्वासों, बलिदानों और जंगल के प्राचीन रहस्यों पर आधारित है। इसमें वो सब है जो आपको नींद से दूर और डर के पास ले जाएगा।
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क्योंकि अगली अमावस्या से पहले…
शायद बुरवा देव फिर भूखा हो जाए…
🩸🌲👁️
🩸 "बुरवा देव" – जंगल की शपथ
(भाग 1: आत्मा का जागरण)
स्थान: मध्य भारत का घना जंगल, बालाघाट ज़िले की सीमा पर स्थित एक छोटा गोंड गांव — बिसाहीपुर।
काल: वर्ष 1971, वर्षा ऋतु।
📖 पौराणिक मूल:
गोंड जनजातियों की एक प्राचीन लोककथा में "बुरवा देव" का वर्णन मिलता है, जिसे "लिंगोपेन पुराण" और "कुसुमलाल चरित्र" जैसी पारंपरिक लोकगाथाओं में "काली छाया का देवता" कहा गया है। कहा जाता है कि यह आत्मा एक गोंड तांत्रिक था, जिसने काला जादू कर पूरे जंगल को अपने अधीन कर लिया था। मगर जब उसने अपने ही गांव पर कहर बरपाया, तो उसे जंगल में जीवित जला दिया गया।
मरने से पहले उसने कहा था:
"मैं हर वर्ष एक रक्त की भेंट मांगूंगा। यदि तुमने मुझे भूखा रखा, तो तुम्हारे बच्चों के कलेजे मेरे जंगल में भटकेंगे!"
🩸 कहानी की शुरुआत:
बारिश के दिन थे। गांव की ओझिन माँ जगनी ने सपना देखा कि जंगल में कोई पुकार रहा है।
“भूख लगी है... भूख लगी है...”
अगली सुबह गांव के 5 घरों में अजीब बीमारी फैल गई। बच्चों के मुंह से खून बहने लगा। मवेशी मरने लगे। खेतों में अन्न काला पड़ गया।
🧙♂️ पीड़ितों की आपबीती:
रामे गोंड, 60 वर्षीय ग्रामीण:
“मेरा पोता खेलते-खेलते अचानक खड़ा हो गया और बोला – ‘बुरवा बाबा आ गए हैं!’ फिर उसकी आँखें पलट गईं… और अगले दिन वो मर गया।”
सोमा बाई, विधवा:
“रात में किसी ने दरवाज़ा खटखटाया... दरवाज़ा खुला ही नहीं, मगर घर की दीवारों से काला धुआँ निकलने लगा। मैं आज तक उस रात को नहीं भूल पाई।”
🌑 बलिदान की परंपरा:
गांव में हर वर्ष अमावस्या की रात काले बकरे की बलि दी जाती थी। मगर इस वर्ष गांव के नए सरपंच भीखलाल ने बलिदान को “अंधविश्वास” कहकर मना कर दिया।
और यही गलती बन गई विनाश की शुरुआत...
🪓 बुरवा देव का जागरण:
तीसरी रात, गांव की गलियों में धात की घंटियों की आवाज़ें सुनाई देने लगीं।
पेड़ो की छाल पर रक्त से लकीरें बन गईं।
और फिर — भीखलाल की पत्नी की लाश अर्धनग्न अवस्था में, उलटी लटकी हुई आम के पेड़ पर मिली।
उसके माथे पर लिखा था –
"अब भूख नहीं सहूंगा।"
😱 जंगल की चीख:
गांव में डर का साया फैल गया। लोग जंगल की ओर न देखने की कसम खाने लगे। मगर यह तो बस शुरुआत थी...
माँ जगनी ने सबको चेताया —
"बुरवा देव अब रुकने वाला नहीं। जब तक बलि नहीं चढ़ेगी, वो हर रात एक जान लेता रहेगा।"
और ऐसा ही हुआ —
अगले 7 दिन में 9 मौतें...
🚩 भाग 1 का अंत:
गांव में निर्णय लिया गया कि एक मनुष्य की बलि दी जाएगी। क्योंकि अब एक बकरा काफी नहीं था।
कौन होगा वो?
सरपंच का बेटा, या ओझा की बेटी, या वो अजनबी जो कल ही गांव आया था?
जवाब मिलेगा भाग 2 में...
🩸 "बुरवा देव – जंगल की शपथ"
(भाग 2: शाप का रक्तवापसी)
🕯️ पिछली बात संक्षेप में:
गोंड गांव बिसाहीपुर में "बुरवा देव" की भूखी आत्मा हर साल बलिदान मांगती है। जब यह बलि नहीं दी गई, तो पूरे गांव पर कहर टूट पड़ा – बीमारियाँ, आत्महत्याएँ, और हत्या... सब कुछ बुरवा देव की काली छाया का परिणाम था। अब गांव ने निर्णय लिया – एक मानव बलि दी जाएगी।
👤 बलिदान कौन होगा?
गांव की बैठक में ओझा, सरपंच और वृद्धों ने तय किया:
-
सरपंच भीखलाल चाहता था बलिदान के लिए अजनबी को चुना जाए – "वो कोई नहीं, कोई अपना नहीं।"
-
ओझा गंगाधर चाहता था बलि में सरपंच का बेटा चढ़े – "जिसने रोक की शुरुआत की, वही अंत करे।"
-
मां जगनी बोली, "कोई नहीं बचेगा, जब तक पुराना पाप स्वीकार नहीं होगा।"
और तभी गांव में प्रवेश करता है एक अंधा बाबा, जिसके हाथों में था खून से सना ताम्रपत्र।
📜 ताम्रपत्र का रहस्य:
अंधे बाबा ने कहा:
"मैं वही हूँ जिसे बुरवा देव ने जंगल में जिंदा जलाया था। मैं उसका भाई था। मैंने भी जादू सीखा, मगर मैं उजाले की ओर गया, वो अंधेरे की ओर..."
"उसने बलि की मांग इसलिए की थी क्योंकि वो अपनी आत्मा को अमर करना चाहता था। हर बलि से उसकी आत्मा एक और दिन अमर रहती है।"
"मगर अब वो अमर नहीं रह सकता, अगर उसे बलि देने के बजाय उसकी आत्मा को उसी जंगल की मृत गुफा में लौटाया जाए।"
🏞️ मृत गुफा की ओर यात्रा:
तीन लोग निकलते हैं:
-
गंगाधर ओझा, मंत्र-तांत्रिक।
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भीखलाल का बेटा अर्जुन, जो सब खत्म करना चाहता है।
-
और मां जगनी, जिसने बुरवा देव को सपनों में देखा है।
इनके साथ गया वह अजनबी, जो अब चुप नहीं था – उसने बताया कि उसका नाम रूद्र है, और वह इस गांव का अनाथ पुत्र है, जिसे बचपन में जंगल में छोड़ दिया गया था।
🐾 जंगल की रात:
जंगल में पहुंचते ही पेड़ों से खून टपकने लगता है। हवा में सड़ांध, और दूर से आती है झुनझुनियों की आवाज़।
गुफा के बाहर एक कंकाल पड़ा है – गंगाधर कहता है, "ये उस साल की बलि है जो अधूरी रह गई थी।"
मंत्र पढ़ते हुए जैसे ही वो गुफा में प्रवेश करते हैं, भीतर घुप्प अंधेरा... और फिर, एक-एक कर आवाज़ें बंद हो जाती हैं।
🩸 आत्मा का रूप:
गुफा के अंत में एक पत्थर पर बंधी है एक काली आकृति, जिसका शरीर हड्डियों का बना है, आंखों की जगह गड्ढे और पूरा शरीर लाल धागों और हड्डियों से लिपटा हुआ।
वो चीखता है:
“रक्त दो! नहीं तो मैं गांव को निगल जाऊंगा!”
मां जगनी आगे बढ़ती है, अपनी गर्दन पर छुरा रखती है – मगर तभी रूद्र चिल्लाता है –
“तू नहीं... वो बलिदान होगा जो जन्म से शापित है!”
वो खुद आगे बढ़ता है... और उसके शरीर से काली आग निकलती है।
🔥 सच्चाई का खुलासा:
रूद्र ही बुरवा देव का पुनर्जन्म था। उसका पुनर्जन्म इसलिए हुआ था क्योंकि पिछली बलि अधूरी रही थी। मगर उसने खुद को पहचान लिया और अब खुद को मिटाकर शाप चक्र तोड़ना चाहता था।
"मैंने देख लिया मां... कितना भयानक है वो जो अमर बनना चाहता है खून से। अब अंत है।"
और वह गुफा के अंदर छलांग लगा देता है।
एक ज़ोरदार विस्फोट होता है। सारी गुफा जलने लगती है।
बाहर निकलते हैं – केवल गंगाधर और अर्जुन।
🌄 गांव की सुबह:
अगले दिन गांव में पहली बार सूरज की किरणें सीधी जमीन पर पड़ीं। पेड़ हरे हो गए। बीमार लोग उठकर चलने लगे।
गांव के मंदिर में अब हर साल कोई बलि नहीं होती – वहां लिखा है:
"जिसने खुद को मिटाया, वही सच्चा देवता बना।"
🕯️ अंतिम पंक्तियाँ:
बुरवा देव अब नहीं है… मगर जंगल की हवाओं में आज भी रात के समय कभी-कभी झुनझुनियों की आवाज़ आती है…
क्या आत्मा वास्तव में मिट गई?
या सिर्फ सो गई है...?
📚 इस कथा की पृष्ठभूमि व संदर्भ:
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"लिंगोपेन पुराण" और "कुसुमलाल चरित्र" जैसी गोंड पारंपरिक वाचिक परंपराओं में शापित आत्मा, मानव बलिदान, और जंगल की आत्मा का उल्लेख मिलता है।
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बुरवा देव का वर्णन प्राचीन भजन परंपरा और "पुरखे देव" के लोकगीतों में भी पाया जाता है।
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कई वृद्ध गोंड बुजुर्गों के अनुसार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमाओं के जंगलों में अब भी “बलि स्थान” मौजूद हैं।
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