Project silence (मृतकों का पर्वत)
🕯️ Project Silence – Horror Blogger Description (हिंदी)
यह कहानी आपको 1959 के द्यातलोव पास हादसे की अंधेरी गहराइयों में ले जाएगी, जहाँ नौ पर्वतारोहियों की मौत रहस्यमयी परिस्थितियों में हुई थी। आज तक यह रहस्य पूरी तरह उजागर नहीं हो पाया, लेकिन “Project Silence” आपको उस खौफनाक सच के करीब ले जाएगा, जहाँ इंसानी चीखें बर्फ में गुम हो गईं और एक ऐसा राक्षसी अस्तित्व सामने आया जिसका शरीर -100°C ठंडा था और जो सिर्फ इंसानी खून पीकर जीवित रहता था।
---Project silence (मृतकों का पर्वत)
इस डरावनी दास्तान में आप देखेंगे:
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सोवियत सरकार की गुप्त फाइलें और प्रयोग,
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नरभक्षी दैत्य का जन्म,
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बर्फ में दबी चीखें,
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और वह भयावह सच्चाई जिसने पूरी दुनिया को हिला दिया।
---Project silence (मृतकों का पर्वत)
यह सिर्फ कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसा खौफनाक अनुभव है जिसे पढ़कर आपकी रूह कांप उठेगी। अगर आप सच्चे हॉरर प्रेमी हैं तो यह पढ़ना आपके लिए ज़रूरी है।
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🩸 PROJECT SILENCE
भाग – 1 : मृतकों का पर्वत
प्रस्तावना
सर्दियों की बर्फ़ से ढकी उरल पर्वतमाला…
जहाँ हवा अपने साथ अजीब सी कराहती ध्वनियाँ लेकर बहती है।
स्थानीय मान्यताओं में एक नाम गूँजता है –
“ख़ोलात स्याख़्ल” – मृतकों का पर्वत।
कहा जाता है कि यहाँ कभी कोई लौट कर नहीं आया।
कुछ लोग इसे यति का इलाका मानते थे।
कुछ कहते थे कि वहाँ कोई प्राचीन अभिशाप जिंदा है।
साल था 1959।
उरल पॉलिटेक्निक संस्थान के 10 पर्वतारोहियों का दल इस भयावह पर्वत की ओर रवाना हुआ।
दल का नेतृत्व कर रहा था – इगोर द्यातलोव (23 वर्ष)।
यह सभी अनुभवी पर्वतारोही थे।
पर उनमें से सिर्फ़ 9 ही आगे बढ़े।
एक सदस्य, यूरी युदिन, बीमार पड़ने के कारण वापस लौट गया।
वह नहीं जानता था कि यही उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी बचत होगी।
सफ़र की शुरुआत
23 जनवरी 1959 को उन्होंने ट्रेन पकड़ी।
फिर जंगलों और बर्फ़ीली घाटियों से होकर स्की और पैदल सफ़र किया।
दल में उत्साह था।
मगर रास्ते में उन्हें गाँव के बुज़ुर्ग मिले।
उनकी आँखों में डर था।
बुज़ुर्ग ने चेतावनी दी:
“उस पर्वत पर न जाना… वहाँ साइलेंस है।
लोग उसे यति कहते हैं, पर असल में वो कुछ और है।
वो इंसानों की गर्मी महसूस करता है… और जब वह पास आता है, तो हवा भी बोलना बंद कर देती है।
इसलिए उसे ‘साइलेंस’ कहा जाता है।”
पर्वतारोही हँस पड़े।
उन्हें लगा यह सिर्फ़ लोककथा है।
टेंट की आख़िरी रात
31 जनवरी को दल ने पहाड़ की तलहटी पर टेंट लगाया।
1 फ़रवरी की रात, बर्फ़ीले तूफ़ान ने पूरी घाटी को ढक लिया।
तापमान –30 से –40°C तक गिर चुका था।
रात के अंधेरे में अचानक अजीब आवाज़ें सुनाई देने लगीं।
कभी किसी के भारी कदमों जैसी धप-धप, कभी भेड़िए जैसी चीख।
इगोर ने टॉर्च जलाई और बाहर झाँका।
कुछ नहीं दिखा।
लेकिन दल के सबसे युवा सदस्य ने देखा कि टेंट की दीवार पर
बर्फ़ जैसे सफ़ेद हाथ के निशान उभर आए हैं।
निशान गर्मी से नहीं, बल्कि कड़ाके की ठंड से बने थे।
उसके बाद… टेंट के चारों ओर गहरी खामोशी छा गई।
इतनी गहरी कि सबकी धड़कनें भी सुनाई देने लगीं।
अचानक टेंट ज़ोर से हिला।
जैसे कोई विशालकाय शक्ति बाहर से दबाव डाल रही हो।
पर्वतारोही डर से कांप उठे।
उन्होंने चाकू निकाला और घबराकर टेंट को अंदर से फाड़ डाला।
सब बाहर भागे…
बिना कपड़े, बिना जूते।
सिर्फ़ अपनी जान बचाने की कोशिश में।
मौत का पीछा
बाहर की हवा हड्डियाँ तक जमा देने वाली थी।
लेकिन उनसे कहीं ज़्यादा खौफ़नाक वह था…
जो उनका पीछा कर रहा था।
दल के एक सदस्य ने पीछे मुड़कर देखा—
दूर बर्फ़ीली अंधेरी में एक सफ़ेद आकृति खड़ी थी।
इतनी विशाल कि इंसान जैसी नहीं लग रही थी।
उसकी साँसें बर्फ़ को धुंधला कर रही थीं…
लेकिन अजीब बात यह कि उसकी साँसें ठंडी नहीं, बल्कि और भी बर्फ़ीली थीं—
मानो –100°C का तूफ़ान उसके अंदर बसा हो।
और तभी वह आकृति धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ने लगी।
हर कदम के साथ बर्फ़ की परतें फटती जा रही थीं।
इगोर चिल्लाया –
“भागो… पहाड़ की तरफ़ मत जाओ, जंगल की ओर भागो!”
दल बिखर गया।
किसी ने पहाड़ी ढलान पकड़ी, किसी ने पेड़ों की तरफ़ दौड़ लगाई।
पर कोई नहीं जानता था कि अब उनके सामने क्या आने वाला है।
पहला शिकार
जंगल के किनारे दो पर्वतारोही ठंड से काँपते हुए आग जलाने की कोशिश कर रहे थे।
उनके हाथ सुन्न हो चुके थे।
माचिस बार-बार बुझ रही थी।
अचानक पेड़ों के पीछे से वही सफ़ेद साया उभरा।
उसकी आँखें नहीं थीं—सिर्फ़ काली खोखली गहराइयाँ थीं।
उसके शरीर से ठंड इतनी तीव्रता से निकल रही थी कि आग की लौ तुरंत बुझ गई।
उन्होंने चीखने की कोशिश की…
लेकिन उनके मुँह से आवाज़ नहीं निकली।
सिर्फ़ खामोशी।
फिर पलभर में वह साया उनके ऊपर झपटा।
उनकी चीखें बर्फ़ में समा गईं।
सिर्फ़ खून की गर्म भाप हवा में तैरती रही।
बाकी दल की नियति
जंगल से दूर, तीन और पर्वतारोही पहाड़ी ढलान पर फिसलकर गिरे।
उनकी पसलियाँ अंदर से चकनाचूर हो गईं।
लेकिन अजीब बात यह थी कि उनके शरीर पर कोई बाहरी घाव नहीं था।
जैसे किसी अदृश्य ताक़त ने उन्हें भीतर से कुचल दिया हो।
सबसे खौफ़नाक नज़ारा खाई में मिला—
एक महिला पर्वतारोही का शव, जिसका चेहरा बर्फ़ में दबा था।
जब उसे पलटा गया, तो देखा गया कि
उसकी जीभ पूरी तरह गायब थी।
और आँखों की जगह सिर्फ़ खोखले गड्ढे बचे थे।
अंत का डर
बचे हुए लोग इधर-उधर भागे, पर कोई नहीं बच सका।
हर कोई अलग-अलग जगहों पर ठंड, खून और खौफ़ की भेंट चढ़ा।
नौ पर्वतारोही… सब मृत।
और पीछे बर्फ़ पर सिर्फ़ एक शब्द की गूंज रह गई—
साइलेंस।
👉 यह था भाग – 1 (मृतकों का पर्वत)।
अगले भाग (भाग – 2) में मैं लिखूँगा:
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साइलेंस का असली रहस्य
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उसकी उत्पत्ति,
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कैसे वह इंसानों का शिकार करता है,
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और किस प्राचीन किताब में उसका ज़िक्र मिलता है।
🩸 PROJECT SILENCE
भाग – 2 : सफ़ेद नरक का शिकार
शवों की बरामदगी
कई हफ़्तों बाद जब बचाव दल द्यातलोव दर्रे पहुँचा, तो उन्हें दिखा –
बर्फ़ में बेतरतीब बिखरे पड़े 9 शव।
कुछ लगभग नग्न, कुछ के कपड़े फटे हुए,
और कुछ ऐसे जिनके चेहरे पहचानना मुश्किल थे।
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दो शव पेड़ के नीचे, जली हुई लकड़ियों के पास – पर आग बुझ चुकी थी।
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तीन शव पहाड़ी ढलान पर – पसलियाँ टूटी हुईं।
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चार शव खाई में – उनमें से एक महिला का चेहरा पूरी तरह बिगड़ा हुआ था, जीभ गायब।
शवों की हालत देखकर सैनिक भी काँप उठे।
रिपोर्ट में लिखा गया –
“ये मौतें किसी अज्ञात और अत्यधिक शक्तिशाली बल के कारण हुई हैं।”
साइलेंस की असली पहचान
लोगों को लगता था कि यह सब यति (हिममानव) का काम है।
पर सच इससे कहीं ज़्यादा डरावना था।
वह प्राणी कोई जानवर नहीं था…
वह कभी इंसान था।
कई सदियाँ पहले, 16वीं शताब्दी में,
एक शिकारी दल उरल की बर्फ़ीली पहाड़ियों में खो गया था।
उनमें से एक व्यक्ति – इवान फेदरोविच –
भूख से तड़पते-तड़पते अपने साथियों का मांस खाने लगा।
उसी पल उस पर एक शाप लगा –
कि अब उसका शरीर हमेशा –100°C पर रहेगा।
वह कभी गर्मी सहन नहीं कर पाएगा।
और जीवित रहने के लिए उसे हमेशा
इंसानों का खून पीना पड़ेगा।
शिकार का नियम
साइलेंस इंसानों को किसी भी जानवर की तरह नहीं देखता था।
वह उनके शरीर से उठती गर्मी को सूंघता था।
किसी का शरीर अगर 15°C से ज़्यादा गर्म होता…
तो वह उसे तुरंत महसूस कर लेता।
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पहले वह आँखें और जीभ निकालता।
क्योंकि यही शरीर के गर्मी और ऊर्जा के असली स्रोत हैं। -
फिर वह खून पीकर अपनी बर्फ़ीली जिंदगी बनाए रखता।
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उसके स्पर्श से इंसानों की हड्डियाँ अंदर से चकनाचूर हो जातीं।
इसलिए द्यातलोव दर्रे में पर्वतारोहियों की मौत साधारण ठंड से नहीं हुई।
बल्कि वे एक-एक कर उसकी भूख का शिकार बने।
प्राचीन किताब – Codex of Frost
बचाव दल के साथ एक गुप्त अधिकारी भी आया था।
उसके हाथ में एक पुरानी किताब थी –
“Codex of Frost” (1701)
इस किताब में दर्ज था:
“साइलेंस बर्फ़ में छुपा है।
उसकी साँस से हवा भी जम जाती है।
वह गर्मी से नफ़रत करता है,
पर इंसानों के खून की गर्माहट ही उसका जीवन है।
जब वह हमला करता है,
तो पहले खामोशी छा जाती है—
ऐसी खामोशी जिसमें चीख भी आवाज़ नहीं बन पाती।”
इस किताब में यह भी लिखा था कि
हर सौ साल बाद साइलेंस की भूख बढ़ती है।
वह अपने इलाके में आने वाले हर इंसान को मार देता है,
और उनकी आत्माएँ हमेशा बर्फ़ में भटकती रहती हैं।
सैनिकों की चुप्पी
सोवियत सरकार को इस प्राणी का सच पता था।
लेकिन उन्होंने इस घटना को “हिमस्खलन” बताकर फाइलें बंद कर दीं।
असल में फाइलों में कोडनेम लिखा गया था –
“Project Silence”।
सरकार नहीं चाहती थी कि दुनिया को पता चले
कि रूस के बर्फ़ीले पहाड़ों में
एक अमर नरभक्षी प्राणी अब भी जिंदा है।
खामोशी की गूंज
उस रात जब 9 पर्वतारोहियों की मौत हुई,
लोगों ने आसमान में चमकती रोशनी देखी थी।
कुछ ने कहा यह UFO था।
पर असलियत यह थी कि वह रोशनी
साइलेंस की ठंडी साँसों से बना आभामंडल था।
आज भी जब तेज़ बर्फ़ीला तूफ़ान उस दर्रे में आता है,
तो कहा जाता है कि
उन 9 पर्वतारोहियों की चीखें खामोशी में दबकर गूँजती हैं।
👉 यह था भाग – 2 (सफ़ेद नरक का शिकार)।
अब बचा है अंतिम और सबसे बड़ा भाग – 3।
उसमें मैं लिखूँगा:
-
कैसे Project Silence की गुप्त सरकारी फाइलों में इस प्राणी पर रिसर्च हुई।
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कौन इसे रोकने की कोशिश करता है।
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और अंत में वह आज भी क्यों जिंदा है।
🩸 PROJECT SILENCE
भाग – 3 : प्रोजेक्ट का सच
सरकार की दबी हुई फाइलें
द्यातलोव दर्रे की घटना के बाद सोवियत सेना ने सभी शवों को गुप्त रूप से पोस्टमार्टम कराया।
रिपोर्ट में लिखा गया:
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कुछ शवों की हड्डियाँ अंदर से टूटी थीं, लेकिन बाहरी चोट नहीं।
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रेडिएशन मिला उनके कपड़ों पर।
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दो शवों की आंखें नहीं थीं।
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एक महिला का जीभ गायब था।
-
मौत का कारण लिखा गया: “अज्ञात शक्तिशाली बल।”
लेकिन असली रिपोर्ट जनता तक कभी नहीं पहुँची।
सरकार ने इसे गुप्त फाइल में कोडनेम दिया –
“PROJECT SILENCE”।
प्रयोगशाला का रहस्य
1959 की गर्मियों में, उरल के एक सैन्य बेस पर एक गुप्त बैठक हुई।
जनरल, वैज्ञानिक और गुप्तचर अधिकारी बैठे थे।
टेबल पर बर्फ़ से जमी एक बोतल रखी थी।
उस बोतल में था – गाढ़ा लाल खून,
जो बचाव दल को एक शव के पास से मिला था।
वैज्ञानिक ने कहा:
“यह खून साधारण इंसानी खून नहीं है।
इसमें तापमान –50°C पर भी जमाव नहीं आता।
यह ‘साइलेंस’ का खून है।”
इस खून का प्रयोग कर सोवियत सरकार ने कोशिश की –
एक जैविक हथियार बनाने की।
वह मानते थे कि अगर इंसान की नसों में यह खून डाल दिया जाए,
तो वह ठंड से कभी नहीं मरेगा।
लेकिन प्रयोग असफल रहा।
जिन सैनिकों पर यह इंजेक्शन लगाया गया,
वे कुछ ही घंटों में दिमाग खो बैठे।
उनकी आँखें सफ़ेद हो गईं,
और वे दूसरों का खून पीने लगे।
इसलिए फाइल में लिखा गया:
“साइलेंस का खून इंसानों के लिए ज़हर है।
यह इंसान को इंसान नहीं रहने देता।”
साइलेंस की असली शक्ति
Codex of Frost की आखिरी पन्नियों में लिखा था:
“साइलेंस कभी मर नहीं सकता।
वह तब तक जीवित रहेगा जब तक धरती पर गर्मी है।
वह केवल उन लोगों का शिकार करता है जिनका शरीर 15°C से ऊपर हो।
इसलिए जब वह आता है, तो हवा भी ठंडी होकर –100°C हो जाती है।”
यानी, साइलेंस इंसानों के शरीर की गर्मी का पीछा करता था।
वह जंगल, बर्फ़, तूफ़ान – कहीं भी छुप सकता था।
पर जैसे ही कोई इंसान सांस लेता, उसकी गर्म भाप उसे खींच लाती।
नरक की रात
एक गुप्त सैनिक दस्ते को आदेश मिला कि वे दर्रे में जाकर साइलेंस को पकड़ें।
उनके पास थे – फ्लेमथ्रोवर, मशीनगन और विस्फोटक।
रात को जब उन्होंने टेंट लगाया,
चारों ओर वही भारी साँसों जैसी आवाज़ें गूँजने लगीं।
फिर अचानक हवा जम गई…
उनकी टॉर्च की रोशनी धुंध में घिर गई।
और फिर—
बर्फ़ के बीच से एक विशाल सफ़ेद आकृति निकली।
उसकी आँखों की जगह गड्ढे थे।
उसके मुँह से बर्फ़ीली धुंध निकल रही थी।
सैनिकों ने गोलीबारी शुरू कर दी।
पर गोलियाँ उसके शरीर को छूकर तुरंत जम गईं।
फ्लेमथ्रोवर की आग उसके पास पहुँचते ही बुझ गई।
वह आगे बढ़ा और पलभर में
तीन सैनिकों की पसलियाँ अंदर से फट गईं।
एक सैनिक की आँखें पल भर में खोखली हो गईं।
दूसरे की जीभ बर्फ़ पर गिर गई।
बाकी भागे…
लेकिन उनमें से कोई वापस नहीं आया।
गुप्त समझौता
सैनिकों के गायब होने के बाद, सरकार ने फैसला किया –
“साइलेंस को हराना असंभव है।
उसे छेड़ा नहीं जाएगा।”
उन्होंने दर्रे के चारों ओर क्षेत्र को प्रतिबंधित इलाका घोषित कर दिया।
बाहरी लोगों को वहाँ जाने से रोका गया।
मगर सच जनता से छुपा लिया गया।
अंत की गूंज
आज भी द्यातलोव दर्रा एक रहस्यमयी जगह है।
लोग वहाँ जाते हैं, लेकिन लौटकर कभी वैसा नहीं रहते।
कभी उनकी तस्वीरों में पीछे सफ़ेद साया दिख जाता है।
कभी उनकी रिकॉर्डिंग में अचानक खामोशी छा जाती है—
ऐसी खामोशी जिसमें दिल की धड़कन तक बंद हो जाती है।
स्थानीय लोग कहते हैं कि उन 9 पर्वतारोहियों की आत्माएँ अब भी वहीं भटकती हैं।
और वे हर गुजरते इंसान को चेतावनी देती हैं:
“पीछे मत देखो…
अगर तुम्हारी सांस हवा में धुंध बन रही है…
तो समझ लो, साइलेंस तुम्हारे पीछे है।”
आख़िरी सच
Project Silence की फाइलें आज भी बंद हैं।
लेकिन गुप्त दस्तावेज़ों में लिखा है:
“साइलेंस अभी ज़िंदा है।
वह इंसानों की गर्मी से नफ़रत करता है।
और जब तक इंसान सांस लेता रहेगा…
वह अपना अगला शिकार ढूंढता रहेगा।”
🔥 यही था भाग – 3 (प्रोजेक्ट का सच) –
सबसे बड़ा और डरावना अंत, जो इस घटना को दुनिया की सबसे भयावह पहेली बना देता है।
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